वर्तमानकाल में शिक्षक के प्रति बदलता दृष्टिकोण
प्राचीनकाल में ज्ञान एवं अनुभूति पर बल
देना ही शिक्षक का कार्य था | उस समय उनकी योग्यता का मापदंड उनके द्वारा प्रप्त
किये जाने वाले अंक, प्रमाण-पत्र या उपाधि-पत्र नहीं थे | इसके स्थान
पर उनकी योग्यता का मूल्यांकन था – उनके द्वारा
अर्जित ज्ञान, जिसका प्रमाण वे विद्वत् परिषदों या
सभाओं में शास्त्रार्थ द्वारा देते थे | छान्दोग्योपनिषद् में हमें श्वेतकेतु और
कमलायन के उदाहरण मिलते हैं, जिनको १२ वर्ष के उपरान्त भी शिक्षा प्राप्त करने का
अधिकार नहीं था | महाभारत अथवा रामायण से भी हमें युद्ध अथवा प्रशिक्षण का भी ज्ञान होता है, अत: उस समय
शिक्षक को युद्धकला व आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने के दृष्टिकोण से देखा गया |
बोद्धकालीन शिक्षा के अनुसार “ शिक्षा सांसारिक
जीवन को सुखी बनाने हेतु शिक्षा प्रदान करता था |
सभी मनुष्यों का शिक्षक के प्रति दृष्टीकोण था -“सांसारिक जीवन में दुखों से मुक्ति दिलवाए |” जैन दर्शन के
अनुसार शिक्षक का स्थान बहुत ऊँचा था तथा सांसारिक व आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करना ही शिक्षक के प्रति
दृष्टिकोण था | अत: शिक्षक बालक की रुची के अनुसार शिक्षा प्रदान करता था कि बालक
सांसारिक बनना चाहता है या आध्यात्मिक | इस प्रकार भारतीय गुरुकुलों में अध्ययन करने वाले छात्रों
का शिक्षक के प्रति दृष्टिकोण था कि व शारीरिक शिक्षा व आध्यात्मिक शिक्षा की
मुख्यरूप से प्रदान करे | अत: प्राचीनकाल की दृष्टि से शिक्षक को आध्यात्मिक
दृष्टिकोण से ही देखा जाता है |
मुस्लिम
काल में मुस्लिम शिक्षा ने जाति के बन्धनों को तोड़ने में सहायता प्रदान की और भारत
सांस्कृतिक की व एकता में भी वृद्धि की | अत: इस काल में शिक्षक सभ्यता तथा
सांस्कृतिक रक्षण के पक्ष में थे | अत: शिक्षक के प्रति दृष्टिकोण धरोहर रक्षण के
रूप में था | परन्तु औपचारिक शिक्षा के पक्ष में न तो बालक के माता-पिता थे और न ही शासक थे ; क्योकिं वे शिक्षण संस्था
को नष्ट कर देते थे या उनको बंध कर देते थे | अत: वे केवल व्यावहारिक शिक्षा के
पक्ष में थे | अत: प्राचीन एवं मध्यकाल के शिक्षक व शिक्षा को जानकर वर्तमान में
शिक्षक के प्रति बदलते हुए दृष्टिकोण पर नजर डालते हैं कि शिक्षक के प्रति किस प्रकार
का दृष्टिकोण होना चाहिए ?
शिक्षक, मास्टर, गुरु, टीचर, उस्ताद,
अध्यापक, फ़ादर ये सभी शब्द पर्यायवाची शब्द हैं | इन सबका कार्य एक ही है –“ शिक्षा प्रदान
करना |” अब मस्तिष्क में
प्रश्न उठता है कि शिक्षक किस प्रकार की शिक्षा प्रदान करे ? वह किसको शिक्षा प्रदान
करे और कैसे करे ? यदि हम वर्तमान समय की बात करें तो बालकों का शिक्षक के प्रति
कैसा दृष्टिकोण होना चाहिए ? शिक्षक से बालक निम्नलिखित बदलते हुए दृष्टिकोण की
अपेक्षा रखते हैं ----
नैतिक शिक्षा के
प्रति दृष्टिकोण --
संसार के सभी व्यक्ति चाहते हैं कि उनकी
सन्तान नैतिक शिक्षा प्राप्त करे, जिससे उनका जीवन सुखमय बने | इस शिक्षा में अपने से छोटे बड़े
व्यक्तियों, मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, कक्षा में तथा अन्य स्थानों पर स्थित
व्यक्तियों से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है |
चरित्रिक शिक्षा
के प्रति दृष्टिकोण ---
बालक के लिए चारित्रिक-शिक्षा सभी
शिक्षाओं में अत्यावश्यक तथा महत्त्वपर्ण है| इस
सन्दर्भ में एक कहावत है कि “ धन- दौलत के नष्ट होने पर कुछ भी नष्ट नहीं होता , शरीर का
कोई अंग- भंग होने पर समझा जाता है कि कुछ नष्ट हुआ है, परन्तु चरित्र नष्ट होने से सब
नष्ट हो जाता है | अत: वर्तमान में शिक्षक से चारित्रिक-शिक्षा की अपेक्षा रखी
जाती है | यह शिक्षा के रूप में बिना भेद-भाव के प्रदान करनी चहिये | क्योंकि
चरित्र ही सफलता की कुंजी है|
व्यवहारिक शिक्षा
के प्रति दृष्टिकोण ---
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | वह एकाकी
नहीं रह सकता | उसको जीवन यापन करने के लिए
परस्पर सहयोग की आवश्यकता पड़ती है, जिसके लिए उसे परस्पर व्यवहार करना पड़ता
है | अत: वर्तमान में शिक्षक से व्यावहारिक शिक्षा की भी अपेक्षा की जाती है |
संगीतात्मक-शिक्षा
के प्रति दृष्टिकोण ---
जब व्यक्ति किसी भी समस्या से ग्रस्त
होता है तो वह संगीत का सहारा लेकर अपने दु:ख को कम करने की प्रयत्न करता है | अत:
शिक्षक को संगीतात्मक-शिक्षा भी प्रदान करनी चाहिए | यह बालक की स्मरण-शक्ति को
तीव्र बनाता है तथा शारीरिक वृद्धि करता है | संगीत-कला का उद्भव सामवेद से माना जाता है |
मनोवैज्ञानिक शिक्षा
के प्रति दृष्टिकोण ---
बालक को उसकी रूचि के अनुसार ही शिक्षा
प्रदान करनी चाहिए | अत:शिक्षक को बलात् अन्य कोई भी विषय नहीं पढ़ाना चाहिए या
थोपना चाहिए | सर्वप्रथम बालक के व्यवहार को जानकर मनोवैज्ञनिक-शिक्षा भी प्रदान करनी चाहिए |
क्योंकि अनेक बार बालकों को बेकार में ही समस्या हो जाती है | अत: शिक्षक तथा
छात्र को परस्पर समझने के लिए मनोवैज्ञानिक शिक्षा भी आवश्यक है |
रोजगार प्राप्ति
के लिए शिक्षा का दृष्टिकोण –
प्राचीन-काल में ज्ञान-प्राप्ति ही
शिक्षा क मुख्य उद्देश्य होता था, परन्तु वर्तमान में रोजगार प्राप्त करना ही
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है, क्योंकि संसार में
जीवित रहने के लिए पेट तो सभी को भरना पड़ता
है, जिसके लिए कोई न कोई कार्य तो अवश्य ही करना पड़ता है : अत: वर्तमान में सभी
व्यक्ति रोजगार के लिए ही शिक्षा प्राप्त करते हैं अत: पाठ्यक्रम में इस प्रकार के विषय डाले जाएँ,
जिनसे सरकारी रोजगार या गैर सरकारी रोजगार की प्राप्ति सरलता से हो सके |
भ्रष्टाचार रोधन
के लिए शिक्षा का दृष्टिकोण ---
आज हमारा देश ही नहीं वरन् अन्य देश भी
भ्रष्टाचार का शिकार हैं | भ्रष्टाचार को समाप्त तो सभी करना चाहते हैं, परन्तु
परस्पर सहयोग नहीं करते | वर्तमान में समाजिक समस्या, आर्थिक समस्या, राजनैतिक समस्या
और धार्मिक समस्याओं का बहुत बोलबाला होने के कारण इनकी शिक्षा स्कूलों में दी
जानी चाहिए |
सेवा-भाव की
शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण ---
सभी मनुष्य चाहते हैं कि उनकि सन्तान
सदैव, खासकर बुढापे में उनकी सेवा करे | सभी गुरु भी यही चाहते हैं कि उनके
शिष्यों के मन में उनके प्रति सेवा-भाव हो | अत: कक्षा में बालकों को इस प्रकार की
शिक्षा दी जाए | इसके लिए वह कहानियों का, लोकोक्तियों का व दृष्टान्तों का सहारा ले सकता है ; जैसे – भ्रातृ-प्रेम,
राष्ट्र-प्रेम, पारिवारिक-प्रेम व देश की एकता व अखंडता के लिए रामायण से, महाभारत
से तथा अन्य ग्रन्थों से सामग्री एकत्र की जा सकती है |
शान्ति व सन्तोष
शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण –
आज-कल जहाँ देखो असामाजिक तत्त्व किसी न
किसी जगह पर उपद्रव फलाते हैं; या फलाने की कौशिश करते हैं | हरियाणा राज्य में
फरवरी २०१६ में हुआ उपद्रव इसका मुख्य उदाहरण है | जैसे पाकिस्तान का भारत पर
व्यर्थ आक्रमण, आतंकवाद को बढ़ावा देना, बम्ब-विस्फोट व सीमा से सीमा-पार लांघना
इसके मुख्य उदाहरण हैं |
सभी मनुष्य कहते हैं कि हमारे परिवारों
में, गलियों में, गाँव में, देश में तथा
विश्व में शांति व सन्तोष बना रहे | इसके लिये विद्यालयों में बालकों को
तत्सम्बन्धी शिक्षा का प्रबन्ध करना
होगा | क्योंकि शान्ति और सन्तोष ही
सफलता की कुन्जी है | इसके लिए शिक्षक इतिहास का सहारा ले सकता है और बालक इस
शिक्षा को आत्मसात करें | अत: शिक्षक के प्रति यह दृष्टिकोण अपना अधिक महत्त्व
रखता है |
सभ्यता तथा संस्कृति
संरक्षण के प्रति दृष्कोण की अपेक्षा –
प्राचीन समय का अध्ययन करने पर
दृष्टिगोचर होता है कि वर्तमान समय में हमारी सभ्यता तथा संस्कृति में बहुत अधिक
बदलाव आया है ; जसे -- हमारा खान-पान, रहन-सहन, पितृ-भक्ति, गुरु-भक्ति;
भ्रातृभाव, पठन-पाठन तथा घर-गृहस्थी में बहुत अधिक बदलाव आया है | यह सब पश्चिमी
सभ्यता की देन है | अत: प्रत्येक देश शिक्षकों से अपनी सभ्यता तथा संस्कृति
संरक्षण की शिक्षा के दृष्टिकोण की अपेक्षा करता है |
धार्मिक शिक्षा के
प्रति दृष्टिकोण –
भारतवर्ष धर्म-निरपेक्ष देश हैं | यहाँ
विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं ; जैसे --
हिन्दू, मुस्लिम, शिख, इसाई आदि , अन्य धर्म भी हैं जिनका हमें भी पता नहीं
| सभी के धर्म-ग्रन्थ, पूजा-पाठ करने की विधि, भाषा, शिक्षण-संस्थाएँ और शिक्षा तथा
सभ्यता व संस्कृति भी भिन्न है, परन्तु सब
धर्मों का आध्यात्मिक व सांसारिक लक्ष्य एक ही है – ‘‘ सुख से जीवन व्यतीत करना तथा परमपिता परमेश्वर को प्राप्त
करना |’’ वर्तमान में सभी
माता-पिता अपनी सन्तान को अपने धर्म का ज्ञान देकर अपने ही धर्म का पालन करने की
आशा रखते हैं | अत: शिक्षक को धर्म के बारे में बालकों को उचित शिक्षा देनी चाहिए
|
नागरिक निर्माण के
प्रति दृष्टिकोण –
जिस देश के नागरिक जितने उत्तम होंगे व
देश भी उतना ही उन्नत होगा | इसके लिए विद्यालयों में बालकों को नागरिक-शास्त्र की
शिक्षा दी जानी चहिए | इस प्रकार की शिक्षा से
ही उचित समय पर उचित मत्त का प्रयोग,
अपने अधिकार तथा कर्तव्य के बारे में उचित ज्ञान प्राप्त करके बालक देश के उत्तम
नागरिक बन सकेंगे | क्योकिं उत्तम नागरिकों से ही सुव्यवस्थित शासन की स्थापना
होती है | अत: शिक्षक प्रशासन सहयोग से, कठोर परिश्रम व ईमानदारी से उत्तम
नागरिकों का निर्माण कर सकता है |
मूल्य-शिक्षा के
प्रति दृष्टिकोण –
समाज की दृष्टि शिक्षक पर ही टिकी हुई
होती है | अत: शिक्षक द्वारा बालकों को पाठ्यक्रम
के अतिरिक्त सामाजिक-मूल्यों,
धार्मिक-मूल्यों, राजनैतिक-मूल्यों तथा आर्थिक-मूल्य की शिक्षा
भी दी जाए, जिससे बालकों में मूल्यों का
विकास हो सके | यदि शिक्षक चाहे तो कठोर-परिश्रम द्वारा यह कार्य सरलता से हो सकता
है |
तकनीकी शिक्षा के
प्रति दृष्टिकोण –
वर्तमान युग वैज्ञानिक युग है | आज-कल लगभग
सभी कार्य तकनीक से ही होते हैं – जैसे सड़क बनाना, पुस्तक छापना, टेलीफोन, कुल्लर, फ्रिज,
प्रोजेक्टर, मोबाइल तथा अन्य तकनीकी मशीनें आदि | इस प्रकार रोजगार प्राप्ति के
अधिक अवसर होते हैं | सरकारी नौकरी नहीं तो प्राईवेट ही सही | अत: पाठ्यक्रम
समिति पाठ्यक्रम बनाते समय इस प्रकार की शिक्षा भी का विषय भी पाठ्यक्रम में डाले
| शिक्षक भी शिक्षण-कार्य इमानदारी से करे, जिससे बालक रोजगार प्राप्त करने में
समर्थ हों जाएँ |
बेसिक शिक्षा के
प्रति दृष्टिकोण –
बेसिक शिक्षा का प्रवर्तक राष्ट्रपिता
महात्मा गाँधी को माना जाता है | उन्होंने नागरिकों की शोचनीय दशा को सुधारने के
लिए बेसिक शिक्षा ( बुनियादी शिक्षा ) का प्रतिपादन किया | पाश्चात्य शिक्षा
युवक-युवतियों पर बुरा प्रभाव डाल रही थी तथा उनको अपनी सभ्यता व संस्कृति से दूर
ले जा रही थी, जो उनके व्यक्तित्व को कुंठित और दूषित बना रही रहे थे | वह शिक्षा पद्धति देश अहितकर थी | वः शिक्षा देश के
युवकों को अपनी सभ्यता तथा संस्कृति से बहुत दूर ले जा रही थी | “ पाश्चात्य सभ्यता
में रंगे भारतवासी रंग-रूप से भारतीय होते हुए भी मन ,वचन एवं कर्म से विदेशी बन
गए थे | इस प्रकार मैकाले द्वारा भरत में पाश्चात्य शिक्षा की नीवं रखते समय
व्यक्त किए गए थे | उनका सत्य अक्षरश: सामने आ रहा है |मैकाले महोदय भारतीयों को ऐसी
शिक्षा देने के पक्ष में थे, जिसकी जड़ें पाश्चात्य-दर्शन एवं साहित्य में हो और जो
भारतीयों को अपनी सभ्यता से दूर ले जाए | अत: शिक्षक को चहिए कि वह अन्य विषयों के
साथ-साथ अपनी सभ्यता तथा संस्कृति की शिक्षा व इसके रक्षण की शिक्षा भी दे, जिससे
सभ्यता तथा संस्कृति का पालन करते हुए इसकी रक्षा भी की जा सके |
निष्कर्ष –
शिक्षा-क्षेत्र तथा जीवन-क्षेत्र में शिक्षक का
दृष्टिकोण व्यापक होना चहिए | क्योकिं शिक्षक ही बालकों को आदर्श बनाती है ; अत:
समाज की दृष्टि शिक्षक पर ही टिकी रहती है क्योकिं बदलते समाज में शिक्षक का दृष्टिकोण
भी बदलता है | प्रत्येक शिक्षक व समाज चाहता है कि उसे शिक्षण कार्य में सफलता
मिले और समाज यह भी चाहता है कि शिक्षक बालकों को सर्वतोन्मुखी शिक्षा प्रदान करे
: जैसे – नैतिक शिक्षा,
व्यवहारिक शिक्षा, व्यवसायी शिक्षा, रोजगारोन्मुखी शिक्षा, शांति की शिक्षा, भाई-चारे
की शिक्षा, संगीतात्मक-शिक्षा, शारीरिक-शिक्षा, सेवाभावी-शिक्षा, चरित्रिक-शिक्षा
व सभ्यता-संस्कृति रक्षण की शिक्षा आदि | उल्लखित शिक्षा से उत्तम नागरिक, सभ्य
समाज तथा उत्तम राष्ट्र का निर्माण होगा तथा हमारा जीवन सुखमय बनेगा | अत: शिक्षक
को अपना शिक्षण कार्य कठोर परिश्रम तथा ईमानदारी से करना चाहिए, जिससे हमारे देश
के बालक उत्तम नागरिक बनकर देश को उन्नति की ओर ले जा सकेंगे |
सन्दर्भ ग्रन्थ
सूची –
१. डॉ. प्रतिभा यादव व प्रो. सरोज
सक्सेना – उदीयमान भारतीय
समाज में शिक्षक, साहित्य प्रकाशन आगरा |
२. भारतीय शिक्षा और उसकी समस्याएँ,
प्रकाशक -- विनोद पुस्तक भण्डार, कार्यालय – डॉ.आंगे ३. राघव मार्ग, आगरा – २ |
४. डॉ. नवप्रभाकर गोस्वामी व महेश वारीक
-- उभरते भारतीय समाज में शिक्षक, श्री कविता प्रकाशन इण्डिया |
५. डॉ. आर. एस. पाण्डे व डॉ. एस. एस.
माथुर – उदीयमान भारतीय
समाज में शिक्षक, अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा – २ |
६. डॉ. आर. ए. शर्मा – शिक्षा अनुसन्धान
के मूल तत्त्व एवं शोध प्रक्रिया, आर. लाल बुक डिपो
बेग ब्रिज रोड़ मेरठ – २५०००१ |
७. विभिन्न समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ |
८.
इंटरनेट
९. डॉ. राजेश कुमार वशिष्ठ -- लिंग विद्यालय तथा समाज, लक्ष्मी बुक डिपो,
हांसी गेट, भिवानी ( हरियाणा
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